नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने एक अभूतपूर्व फैसले के तहत देश में व्यापक जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की है, जिसमें पहली बार मुस्लिम समुदाय की जातियों को भी शामिल किया जाएगा। इस जनगणना में धर्म और जाति दोनों का कॉलम होगा, जो सभी समुदायों पर लागू होगा। सूत्रों के मुताबिक, अगले दो से तीन महीनों में यह प्रक्रिया शुरू हो सकती है, और इसके परिणाम सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक नीतियों को नए सिरे से परिभाषित कर सकते हैं। यह कदम सामाजिक समावेशन और नीति निर्माण में पारदर्शिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल माना जा रहा है। आइए, इस जनगणना की प्रक्रिया, इसके लक्ष्यों, और संभावित प्रभावों का गहराई से विश्लेषण करें।
जनगणना का दायरा: मुस्लिम जातियों पर विशेष ध्यान
मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस जनगणना में प्रत्येक व्यक्ति से उनकी जाति और धर्म की जानकारी ली जाएगी। विशेष रूप से, मुस्लिम समुदाय की विभिन्न जातियों, जैसे पसमांदा, शेख, सैयद, और अन्य सामाजिक समूहों को भी गिना जाएगा। यह पहली बार होगा जब मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत संरचना को आधिकारिक रूप से दर्ज किया जाएगा।
हालांकि, सरकार ने धर्म-आधारित आरक्षण की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है। गृह मंत्री अमित शाह ने बार-बार दोहराया है कि भारतीय संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, और बीजेपी इसे लागू नहीं होने देगी। इस नीति का मकसद सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को समझना और लक्षित नीतियां बनाना है, न कि नए आरक्षण विवादों को जन्म देना।
इस कदम के समर्थक तर्क देते हैं कि मुस्लिम समुदाय के भीतर जातिगत गणना से पसमांदा जैसे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों की स्थिति को बेहतर समझा जा सकेगा। इससे उनके लिए विशेष योजनाएं और विकास कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं। दूसरी ओर, आलोचक चेतावनी देते हैं कि यह कदम समुदाय के भीतर नए सामाजिक विभाजन को जन्म दे सकता है और राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल हो सकता है।
जनगणना की समयसीमा और तकनीकी पहलू
सूत्रों के अनुसार, जनगणना का कार्य अगले दो से तीन महीनों में शुरू होने की संभावना है। इसके लिए सरकार अधिकारियों को डेपुटेशन पर तैनात करने की प्रक्रिया जल्द शुरू करेगी। डेटा संग्रहण की प्रक्रिया को 15 दिनों में पूरा करने का लक्ष्य है, जो आधुनिक तकनीकों के उपयोग से संभव होगा। इस बार जनगणना में आधार, बायोमेट्रिक, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग किया जाएगा, जिससे डेटा की सटीकता और गति बढ़ेगी।
हालांकि, डेटा विश्लेषण और अंतिम रिपोर्ट तैयार करने में एक से दो साल का समय लग सकता है। इसका मतलब है कि जनगणना की व्यापक रिपोर्ट 2027 तक सामने आ सकती है। यह समयसीमा महत्वपूर्ण है, क्योंकि सरकार 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले कई नीतिगत लक्ष्यों को हासिल करना चाहती है, जिसमें महिला आरक्षण और परिसीमन शामिल हैं।
महिला आरक्षण और परिसीमन: 2029 का लक्ष्य
केंद्र सरकार का एक प्रमुख लक्ष्य 2029 के लोकसभा चुनाव में 33% महिला आरक्षण लागू करना है। इसके लिए संसद और विधानसभाओं में परिसीमन जरूरी है, जो जनगणना के आंकड़ों पर निर्भर करता है। परिसीमन के तहत निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण होगा, जिससे कुछ राज्यों में सीटों की संख्या में बदलाव हो सकता है।
इसके लिए एक परिसीमन आयोग का गठन किया जाएगा, जो राज्यों का दौरा कर अपनी रिपोर्ट तैयार करेगा। यह प्रक्रिया जटिल और समय लेने वाली होगी, और इसके परिणामस्वरूप उत्तर और दक्षिण भारत के बीच राजनीतिक तनाव बढ़ सकता है। खासकर, दक्षिणी राज्य, जहां जनसंख्या वृद्धि दर कम है, अपनी संसदीय सीटों में कमी की आशंका जता सकते हैं। यह मुद्दा विपक्षी इंडिया ब्लॉक के लिए भी एक प्रमुख बहस का विषय बन सकता है।
ओबीसी आरक्षण: संभावित नीतिगत बदलाव
जातिगत जनगणना के आंकड़े सामाजिक और आर्थिक नीतियों को नया रूप दे सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक, अगर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दिखती है, तो सरकार सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 27% OBC आरक्षण की सीमा बढ़ाने पर विचार कर सकती है।
इसके अलावा, जस्टिस रोहिणी आयोग की सिफारिशों, जिसमें OBC के भीतर उप-श्रेणियों के लिए ‘कोटा के भीतर कोटा’ की बात थी, पर भी ध्यान दिया जा सकता है। हालांकि, इस मुद्दे पर सरकार अभी सतर्क रुख अपनाए हुए है, क्योंकि यह सामाजिक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील है। जनगणना के आंकड़े इस दिशा में ठोस निर्णय लेने में मदद करेंगे, लेकिन इसे लागू करने में सामाजिक संतुलन बनाए रखना एक चुनौती होगी।
निजी क्षेत्र में आरक्षण: अनिश्चित भविष्य
निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा लंबे समय से चर्चा में रहा है, लेकिन सरकार इस पर कोई ठोस कदम उठाने से बच रही है। यूपीए सरकार के दौरान भी निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग उठी थी, लेकिन निजी कंपनियों के तीव्र विरोध के कारण यह लागू नहीं हो सका। वर्तमान में, अनुच्छेद 15(5) के तहत निजी शैक्षणिक संस्थानों में कुछ आरक्षण प्रावधान लागू हैं, लेकिन इसे व्यापक स्तर पर लागू करने की संभावना कम है।
निजी क्षेत्र का तर्क है कि आरक्षण से उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता (Competition) और दक्षता (Capability) प्रभावित हो सकती है। दूसरी ओर, सामाजिक न्याय के समर्थक मानते हैं कि निजी क्षेत्र में भी सामाजिक समावेशन को बढ़ावा देना जरूरी है। यह मुद्दा जनगणना के बाद और गहरा सकता है, लेकिन सरकार इसे सावधानी से हैंडल करना चाहेगी।
राजनीतिक दलों के साथ संवाद
जातिगत जनगणना की प्रक्रिया और इसके परिणामों को लागू करने के लिए सरकार सभी राजनीतिक दलों के साथ बातचीत की योजना बना रही है। यह कदम इसलिए जरूरी है, क्योंकि जनगणना के आंकड़े आरक्षण, संसाधन वितरण, और परिसीमन जैसे संवेदनशील मुद्दों को प्रभावित करेंगे। विपक्षी इंडिया ब्लॉक (INDI Alliance) पहले ही इस मुद्दे को सामाजिक न्याय से जोड़कर प्रचारित कर रहा है, और परिसीमन के बाद उत्तर बनाम दक्षिण की बहस को हवा दे सकता है।
कुछ राजनीतिक दल इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जातिगत जनगणना सामाजिक विभाजन को बढ़ा सकती है। उनका मानना है कि जाति पर जोर देने के बजाय राष्ट्रीय एकता और समानता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। दूसरी ओर, समर्थक तर्क देते हैं कि सटीक आंकड़े सामाजिक असमानताओं को दूर करने और समावेशी नीतियां बनाने के लिए जरूरी हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ और चुनौतियां
भारत में आखिरी बार पूर्ण जातिगत जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। आजादी के बाद, 1951 से केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की गणना की जाती रही है। 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) में जातिगत आंकड़े एकत्र किए गए थे, लेकिन त्रुटियों और अविश्वसनीयता के कारण इन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया।
इस बार की जनगणना कई मायनों में ऐतिहासिक होगी, लेकिन इसके सामने कई चुनौतियां भी हैं:
- डेटा की सटीकता: 2011 की SECC में गलतियों के कारण आंकड़े अविश्वसनीय हो गए थे। डिजिटल तकनीक इस बार इसे कम करने की कोशिश करेगी, लेकिन भारत जैसे विविध देश में यह एक जटिल कार्य है।
- सामाजिक तनाव: जातिगत आंकड़े सामाजिक विभाजन को बढ़ा सकते हैं, खासकर अगर कुछ समूहों को लगे कि उनके हितों को नजरअंदाज किया जा रहा है।
- राजनीतिक दबाव: विभिन्न दल अपने हितों के लिए आंकड़ों का उपयोग कर सकते हैं, जिससे नीति निर्माण जटिल हो सकता है।
- उपजातियों की जटिलता: भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं, जिन्हें सटीक रूप से गिनना एक बड़ा प्रशासनिक चुनौती है।
संभावित प्रभाव और भविष्य
जातिगत जनगणना के परिणाम भारत के सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित कर सकते हैं। यह न केवल सामाजिक न्याय और समावेशन को बढ़ावा देगा, बल्कि संसाधनों के वितरण, शिक्षा, और रोजगार नीतियों को भी नया रूप देगा। मुस्लिम जातियों की गणना विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समुदाय के भीतर सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को उजागर करेगा।
हालांकि, इस प्रक्रिया को लागू करने में सरकार को सामाजिक संतुलन और राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की चुनौती होगी। जनगणना के आंकड़ों का दुरुपयोग या गलत व्याख्या सामाजिक तनाव को बढ़ा सकती है। इसलिए, सरकार को पारदर्शी और समावेशी दृष्टिकोण अपनाना होगा, जिसमें सभी हितधारकों की भागीदारी सुनिश्चित हो।
जातिगत जनगणना हो सकती है मील का पत्थर साबित
केंद्र सरकार का जातिगत जनगणना का फैसला भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। मुस्लिम जातियों को शामिल करना इसे और भी समावेशी बनाता है, लेकिन इसके साथ कई सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां भी जुड़ी हैं। अगले दो-तीन महीनों में शुरू होने वाली यह जनगणना देश की जनसांख्यिकी को समझने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। सरकार को इस प्रक्रिया को निष्पक्ष और पारदर्शी ढंग से लागू करना होगा, ताकि यह सामाजिक समावेशन और राष्ट्रीय एकता के लिए एक सकारात्मक कदम बन सके।