नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के एक मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए एक पति की याचिका को मंजूरी दे दी, जिसमें उसने अपनी पत्नी की फोन कॉल रिकॉर्डिंग को अदालत में सबूत के रूप में पेश करने की अनुमति मांगी थी। इस फैसले ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि बिना पत्नी की सहमति के रिकॉर्ड की गई बातचीत को सबूत के तौर पर इस्तेमाल करना निजता के अधिकार का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी रिकॉर्डिंग वैवाहिक विवादों में सबूत के रूप में वैध है और यह किसी कानून का उल्लंघन नहीं करती। यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि निजता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकारों के बीच संतुलन को भी रेखांकित करता है।
क्या है पूरा मामला?
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मामला एक दंपती के तलाक से जुड़ा है, जिनका विवाह 20 फरवरी 2009 को हुआ था। इस शादी से 11 मई 2011 को उनकी एक बेटी पैदा हुई। लेकिन वैवाहिक जीवन में खटास आने के कारण पति ने 7 जुलाई 2017 को परिवार न्यायालय में तलाक के लिए अर्जी दायर की। इसके बाद 3 अप्रैल 2018 को उन्होंने अपनी याचिका में संशोधन किया और 7 दिसंबर 2018 को जांच के लिए हलफनामा पेश किया।
9 जुलाई 2019 को पति ने अदालत से अनुरोध किया कि वह अपनी पत्नी के साथ हुई फोन पर बातचीत की रिकॉर्डिंग को सबूत के रूप में पेश करना चाहता है। इन रिकॉर्डिंग्स में नवंबर 2010 से दिसंबर 2010 और अगस्त 2016 से दिसंबर 2016 के बीच की बातचीत शामिल थी। पति ने इन कॉल्स को अपने मोबाइल फोन के मेमोरी कार्ड/चिप में रिकॉर्ड किया था और उनके ट्रांसक्रिप्ट भी तैयार किए थे। उन्होंने अदालत में मोबाइल चिप, कॉम्पैक्ट डिस्क (CD), और ट्रांसक्रिप्ट को सबूत के तौर पर प्रस्तुत करने की अनुमति मांगी।
हाईकोर्ट का फैसला और सुप्रीम कोर्ट की दखल
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने पति की इस मांग को खारिज कर दिया था। हाईकोर्ट का कहना था कि बिना पत्नी की सहमति के रिकॉर्ड की गई बातचीत को सबूत के रूप में पेश करना निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। हाईकोर्ट ने इसे तलाक की कार्यवाही में अनुचित माना और पति के अनुरोध को ठुकरा दिया।
इसके खिलाफ पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने 14 जुलाई 2025 को अपने फैसले (2025 INSC 829) में हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया। कोर्ट ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 वैवाहिक संचार को गोपनीय रखने की बात करती है, लेकिन इसमें अपवाद भी हैं। यह अपवाद तब लागू होता है, जब पति-पत्नी के बीच कानूनी कार्यवाही चल रही हो या जब एक पक्ष दूसरे के खिलाफ अपराध का मुकदमा दायर करता हो।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: निजता का उल्लंघन नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पति द्वारा रिकॉर्ड की गई फोन बातचीत को तलाक के मामले में सबूत के रूप में इस्तेमाल करना किसी कानून का उल्लंघन नहीं करता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 122 के अपवाद को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मौलिक अधिकारों का हिस्सा है, और इस मामले में रिकॉर्डिंग को सबूत के रूप में स्वीकार करना निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।
कोर्ट ने यह भी कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 किसी ऐसे निजता के अधिकार को मान्यता नहीं देता, जो वैवाहिक विवादों में साक्ष्य प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को रोके। इसलिए, पति को अपनी पत्नी की रिकॉर्डेड बातचीत को सबूत के रूप में पेश करने की अनुमति दी गई।
कानूनी और सामाजिक निहितार्थ
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तलाक और वैवाहिक विवादों से जुड़े मामलों में एक नई मिसाल कायम करता है। यह न केवल निजता के अधिकार और निष्पक्ष सुनवाई के बीच संतुलन को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि वैवाहिक रिश्तों में उत्पन्न होने वाले सबूतों को अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है, बशर्ते वह कानूनी दायरे में हो।
यह फैसला उन लोगों के लिए राहत भरा हो सकता है, जो तलाक या वैवाहिक विवादों में सबूत जुटाने के लिए रिकॉर्डिंग जैसे साधनों का सहारा लेते हैं। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह निजता के अधिकार पर भी सवाल उठाता है, और भविष्य में इस तरह के मामलों में और स्पष्टता की जरूरत हो सकती है।
समाज में चर्चा का विषय
यह मामला अब कानूनी और सामाजिक हलकों में चर्चा का विषय बन गया है। लोग इस बात पर बहस कर रहे हैं कि क्या रिकॉर्डिंग जैसे निजी साधनों को अदालत में सबूत के रूप में इस्तेमाल करना नैतिक है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि जब तक विवाह संबंधी कार्यवाही चल रही है, तब तक ऐसे सबूत वैध हैं। यह फैसला तलाक के मामलों में सबूतों की स्वीकार्यता को लेकर एक नया दृष्टिकोण देता है, और भविष्य में निचली अदालतों के लिए एक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है।
ललितपुर की यह घटना और सुप्रीम कोर्ट का फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज में रिश्तों, विश्वास और निजता की सीमाओं पर भी गहरे सवाल उठाता है।

